हाय रे तालघाटी तेरी भी क्या किस्मत, जनप्रतिनिधि भी यहॉ आने में समझते हैं अपनी फजीहत

हाय रे तालघाटी तेरी भी क्या किस्मत, जनप्रतिनिधि भी यहॉ आने में समझते हैं अपनी फजीहत
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तालघाटी और त्याड़ो घाटी ऊपर वाले ने भी पता नहीं किस कलम से लिखी तेरी किस्मत, जिसकी लिखावट आज के भगवान यानी जनप्रतिनिधि भी नहीं पढ पा रहे हैं। तालघाटी की किस्मत तो देखो यहॉ केवल दूर दूर से आकर जनप्रतिनिधियों को हर बार के चुनाव में चुनते जरूर हैं, लेकिन उनको चुनाव में न तो नाम मालूम होता है और न ही शक्ल, बस उन्हे यह मालूम होता है कि मोदी जी और योगी जी के नाम पर इनको वोट देना है। यहॉ के मनीषियों को तो यह भी मालूम नहीं होता है कि यहॉ कौन सा उम्मीदवार चुनाव लड़ रहा है, बस टीवी और लोगों के कहने पर वह मतदान के दिन मत देकर आ जाते हैं, उसके बाद उन्हें शक्ल तो क्या नाम भी मालूम नहीं होता है कि हमारा जनप्रतिधि कौन है। वैसे भी उन्हें मालूम होना भी क्यों हैं, क्योंकि उनके सुख दुख में जब कोई खड़ा ही नहीं होता है, उनके लिए तो चुनाव मेंं मतदान करना जैसे खेतों में हल लगाने के बाद जोळ ( पाटा) लगाना है। हल लगाने के बाद जोळ लग भी गया तो ठीक और नहीं भी लगा तब भी बीज उग ही जायेगें।

तालघाटी और त्याड़ो घाटी के लोगों के लिए लोकतंत्र और जनतंत्र की परिभाषा मालूम नहीं हैं, मालूम करके करेगें भी क्या, जब आजादी के 50 सालों में हालात और बदतर हो गये हैं। इससे पहले ही यहॉ के पूर्वज किस्मत वाले थे, जब यहॉ पर सब जगह की आवाजाही थी तो उत्तर प्रदेश के समय यहॉ से निर्वाचित जनप्रतिनिधि सबसे पहले इसी क्षेत्र में आते थे, उत्तराखण्ड बनने के बाद तो इस क्षेत्र के लोगों को तो पता ही नहीं चलता है कि कौन सांसद है, कौन विधायक है, कौन जिला पंचायत है, कौन ब्लॉक प्रमुख है। उनके लिए तो ना सावन सूखा और ना भादो हरा।

तालघाटी की किस्मत की कहानी ते देखिये बेचारे सड़क अस्पताल, स्कूल आदि से बंचित हैं, क्योंकि इन्हें ऋषिकेश और हरिद्वार के नजदीक होने का अभिशाप जो मिला है। उधर से शाप कम लग रहा था तो राजाजी नेशनल पार्क को सिर पर लादकर महाशाप दे दिया गया। रही सही कसर 2014 की और इस बार की प्राकृतिक आपदा ने पूरी कर ली। 2014 के आपदा में तो तालघाटी में हैलीकॉप्टर एक दिन उतर भी गया था, लोगों ने नजदीक से देखने का परम सौभाग्य मिल भी गया था। लेकिन इस बार तो तालघाटी में आपदा आयी तो बस सोशल मीडिया में दुख व्यक्त कर इतिश्री कर दिया गया। वैसे भी यहॉ आपदा हर समय ही रहती है जिस वजह से यहॉ के लोगों को आपदा से झूजने की आदि हो गये हैं, हर बरसात में वह पैदल चलने में सक्षम हैं, उन्हें क्या जरूरत है जनप्रतिधियों की, वह तो केवल चुनाव के समय बूथ स्थल तक के लिए एक गिनती के वोटर मात्र जो हैं।

20 अगस्त को पूरे यमकेश्वर में आपदा आयी इस बार आपदा ने किसी के साथ अन्याय नहीं किया, दण्ड दिया तो सबको बराबर दिया, पूरा यमकेश्वर त्रासदी में है, और सबको इस समय आश्वासन की नहीं बल्कि अपने बीच अपनों को खड़े होते देखने एवं उनकी मदद करने की उम्मीदे है, किंतु तालघाटी के भाग्य मेंं तो देखों कि यहॉ तो आने के लिए भी रास्ते नहीं हैं, और नहीं कभी यहॉ के बारे में किसी ने सोचा। सोचते भी क्यों, ना तो यहॉ से कोई आय के स्त्रोत हैं, ना ही मतदाता इतने हैं कि यहॉ से चुनावी गणित ही बिगड़ जाय।

तालघाटी में आपदा आने के बाद तीन दिन हो गये, कुछ जगह प्रशासन की टीम पहॅुच गयी कुछ जगह पहॅुच रही है, लेकिन जिनको हर पॉच साल में जनता आश लगाकर चुनती है, उनके लिए यह घाटी विरान है, उन्हें इस घाटी के प्रति कोई दुख दर्द नहीं हैं, होगा भी क्यों इस घाटी से कोई सरकारी राजस्व तो प्राप्त हो नहीं रहा है, पूर्ववर्तीयों ने भी सड़के तो बनवायी उनका पक्कीकरण नहीं किया। अब यहॉ जनता भी उनके लिए इतनी काम की नहीं है कि यहॉ हैलीकॉप्टर पर तेल फूका जाय।
अब तो तालघाटी में आपदा के बाद जो मंजर गवाह बने थे जो पेड़ बहकर आये थे जानवरों की जो लाशें बहकर आयी थी, गाड़ीयां जो मलवे में दब गये थे, मकान में आया मलवा, दीवारों पर पड़ी तिरालें, खेतों में उखड़ी हुयी धान, वह भी इंतजार करते करते इतने मायूस हो गये हैं कि वह भी अब गवाही देने के लिए तैयार नहीं हैं, यहॉ के लोग सिर पर हाथ रखकर राह देखते देखते तीन दिन हो गये लेकिन कोई जनप्रतिनिधि के तौर पर कोई नुमाइंदा भी तालघाटी की किस्मत को देखकर यहॉ आने में अपनी फजीहत समझ रहा है। हाय रे ताल घाटी तेरी किस्मत में ये कैसी वीरानी, गर्मियों में है सूखा और बरसात में आपदा का पानी।

हरीश कण्डवाल मनखी की कलम से।

Mankhi Ki Kalam se

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