उत्तराखंडसंस्कृति

ग्राम देवताओं /क्षेत्रपाल/ लोकपाल देवताओं का पूजन और उनके थान

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उत्तराखण्ड की धरती में देवताओं का कण कण में निवास होने के कारण ही देवभूमि कहा गया है। उत्तराखण्ड में सिर्फ चार धाम, या पंचप्रयाग, पंच रूद्र, नीलंकठ या अन्य तीर्थ स्थल ही नहीं बल्कि यहॉ पर स्थानीय देवी देवताओं का भी उतना ही महत्व है, जितना कि चारों धामों का। उत्तराखण्ड के त्रिदेव एवं देवियों के अतिरिक्त अन्य लोक देवताओं या स्थानीय देवताओं का भी इस धरती को देवत्व बनाने में बड़ा योगदान है। उत्तराखण्ड के स्थानीय देवता बहुत सरल मिजाज के होते हैं, इन्हें बड़े बड़े भव्य एवं संगमरमर के मंदिरों में रहना पंसद नहीं है, यह तो दो पत्थर के ऊपर एक बड़े पत्थर रखकर थान में भी अपना निवास मान लेते हैं। यहॉ एक धूप और कुछ रोट, या खीर चढाने और कुछ जंगल या स्थानीय देवता जिनमें घास, लोहा, बीड़ी आदि चढाने से ही प्रसन्न हो जाते हैं, और इनको नकारने पर जल्दी ही रूष्ट भी हो जाते हैं, और अपनी रूष्टता को प्राकृतिक आपदा या छोटी सी अप्रत्याशित घटनाओं से प्रदर्शित भी कर देते हैं।

उत्तराखण्ड के स्थानीय प्रचलित देवी देवताओं में नार्गजा, नर्सिग, देवी, गोरिल देवता प्रमुखतः सभी घरों में निवास करते हैं, अधिकांश लोगों द्वारा भैरव और निरंकार की पूजा भी की जाती है। इसके साथ ही ग्रामीण देवता जिसमें ऐड़ी, ब्यूंराळ, भूम्या ठाकुर, हीत देवता, गंगनाथ, मलैनाथ देवता भोलानाथ, कालसिंण देवता, गंगू रमोला, और सिदुवा विदुवा, आदि स्थानीय प्रचलित देवता जिन्हें वन देवता या क्षेत्रपाल देवता के नाम से जाना जाता है।

उत्तराखण्ड के ग्रामीण और पहाड़ी क्षेत्रों का जीवन साधारण जीवन रहा है, अतः यहॉ के जन मानस में आज भी इन देवताओं के प्रति ग्रामीणों की अगाध श्रद्धा है। भूम्या, ठाकुर, ब्यूंराळ डंटवाल आदि को जंगल या स्थानीय क्षेत्रपाल देवता कहा जाता है। कृषकों और पशुपालकों के द्वारा खेती और पशु की सुरक्षा के लिए इनकी सर्वप्रथम पूजा की जाती है। इन सभी देवताओं की पूजन विधि भी बहुत ही साधारण है। बस नये घी और नये अनाज के रोट से ही यह प्रसन्न हो जाते हैं। इनके विशालकाय मंदिर नहीं हैं, और न ही कोई विशेष लोग या वीआईपी इनके दर्शन के लिए विशेष प्रयोजन नहीं करता है, यह आम व्यक्तियों की छोटी सी पुकार में प्रसन्न हो जाते हैं, और छोटी सी गलती पर रूष्ट भी हो जाते हैं, और सवा रूपये दण्ड रखकर अपने भक्तों की बात सुन भी लेते हैं।

उत्तराखण्ड के यह स्थानीय क्षेत्रपाल देवता ना सिर्फ गॉव वालों की रक्षा करते हैं, बल्कि उनको सावधान भी करते हैं, बडी बड़ी दुर्घटनाओं के होने से पहले चेतावनी के रूप में अलग अलग प्र्रकार से प्रदर्शन करते हैं। यह हमारे अगाध श्रद्धा के प्रतीक हैं। उत्तराखण्ड में आज भले ही लोग पलायन कर गये हों लेकिन इनकी पूजा करने के लिए गा्रमीणों को एकजुट होना होता है। यह हमारे ना सिर्फ धार्मिकता और संस्कृति को बचाते हैं, बल्कि समाज को एकजुट होने के लिए भी प्रयास करते हैं। अतः भावी पीढियों को इन स्थानीय देवताओं के बारे मे उनके संबंध मेंं श्रद्धा भाव और उनसे जुड़ी घटनाओं को अवश्य बताना चाहिए, साथ ही उनकी पूजा विधि और उनके नियमों के पालन के संबंध में भी जानकारी दी जानी जरूरी है। हमारे पहाड़ों में तो पित्रों की पित्र कूड़ी बनाये जाने का प्रावधान है।

हमारे पहाड़ों के इन देवी देवताओं के जो थान या स्थान होते हैं, वह गॉव के ऊपर उच्च स्थानों में होते हैं, यहॉ पर छोटा सा पत्थरों का घर बनाकर एक त्रिशुल या लोहे की कील या फिर कोई पत्थर जिसको देवत्व स्वरूप मानकर पूजा की जाती है, यहॉ पर कोई अष्ट धातु या सोने की कोई विशाल मूर्ति नहीं होती है, बस साधारण लोगों के असाधारण शक्ति वाले स्थानीय लोकपाल देवता होते हैं, जो कि पूरे गॉव समाज, पशु और खेती की सुरक्षा की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेकर रखते हैं, इनका प्रसाद भी पूरी प्रसाद, खीर या फिर रोट होता है, जिसे एक आम व्यक्ति भी सरलता से बनाकर श्रद्धापूर्वक पूजन कर लेता है, एक धूप और अंगारे में घी डालकर उसके श्रद्धा रूपी धूपण से ही प्रसन्न हो जाते हैं।

ऐसे ही हमारे कुछ वन देवता जिसमें ब्यूरांळ रूप़द्यो आदि देवता होते हैं, जिसमें घसियारी या आने जाने वाले लोग घास, लोहा, बीड़ी, तम्बाकू आदि चढाकर अपनी सुरक्षा की कामना करते है, और यह वन देवता उनकी सुरक्षा भी करते हैं। ऐसे अनकों स्थानीय, क्षेत्रपाल या लोकपाल देवता जिनके प्रति लोगों की आस्था है, और उसी आस्था के फलस्वरूप आज भी हमारे पहाड़ों में देवत्व का निवास है, और कण कण में देवत्व विराजमान है।

लेकिन आज के समय में जो रूप बड़े बड़े मंदिरों के दर्शन करने आने वाले श्रद्धालुओं के भेष में कुछ अराजक तत्वों द्वारा देवभूमि को देवत्व को चुनौती दे रहे हैं, जिस तरह चारों धामों में रील्स और वीडियो बन रही हैं, जिस तरह नग्नता का प्रदर्शन और भोले के नाम पर नशा हो रहा है, उसका परिणाम दिखाई भी दे रहे हैं, िंकंतु हम आधुनिकता की आड़ में प्रकृति और यहॉ के देवत्व को नकार रहे हैं, वह आने वाले समय या जो हो रहा है उसको पहचानने में भारी भूल कर रहे हैं। अभी भी संभलने की जरूरत है और उत्तराखण्ड की इस पावन धरती को पावन ही बने रहने में और प्रकृति के साथ आदि मानव बनकर उसकी मूलत्व में छेड़छाड़ करना मानव समाज के लिए घातक सिद्ध होगा।

हरीश कण्डवाल मनखी की कलम से।

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