केदारनाथ आपदा के सबक और सवालों पर मंथन

केदारनाथ आपदा के सबक और सवालों पर मंथन
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– ‘केदारनाथ आपदा के 10 साल’ पर एसडीसी फाउंडेशन का संवाद
– हिमालय में अंधाधुंध निर्माण और पर्यटन की भीड़ पर नियंत्रण जरूरी
– आपदा प्रबंधन को सुदृढ़ बनाने और जागरूकता बढ़ाने पर जोर

साल 2013 में केदारनाथ में आई भीषण आपदा के 10 वर्ष पूरे होने के अवसर पर एसडीसी फाउंडेशन की ओर से उत्तरांचल प्रेस क्लब, देहरादून में एक संवाद का आयोजन किया गया। इसमें भाग लेते हुए विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों और प्रबुद्ध नागरिकों ने राज्य में भयावह आपदाओं से सबक लेने पर जोर दिया। साथ ही हिमालयी क्षेत्रों में अंधाधुंध निर्माण और पर्यटकों की बेतहाशा भीड़ को लेकर चिंता व्यक्त की।

भूविज्ञान विशेषज्ञ डॉ. वाईपी सुद्रियाल ने कहा कि केदारनाथ सहित हिमालय में लगातार भीड़ बढ़ रही है। यदि इसका उचित प्रबंधन नहीं किया गया तो 2013 जैसी त्रासदी फिर हो सकती है। 2013 आपदा के बाद हमने सर्वे में पाया था कि केदारघाटी में महज 25 हजार यात्रियों के ठहरने की व्यवस्था थी, लेकिन उस रात वहां 40 हजार लोग थे। अब यह संतुलन और बिगड़ गया है। जिस सड़क की ब्रांडिंग ऑलवेदर के तौर पर की गई अब वो चारधाम मार्ग परियोजना हो गई है। चिंता की बात यह है कि सरकार के पास सड़क बनाने के लिए बजट है, लेकिन कटान के कारण पहाड़ी पर पैदा स्लोप को स्थिर करने के लिए बजट नहीं होता है। यही कारण है कि इस सड़क पर साल भर भूस्खलन हो रहे हैं। ऐसे में केदारनाथ में अधिक से अधिक लोगों को जुटाने से बचना चाहिए। हमें घाटी की धारण क्षमता का ध्यान रखना होगा। अनियोजित विकास का नतीजा हमने जोशीमठ में भी देखा है। इन मुद्दों पर सरकार को विशेषज्ञों की बात सुननी चाहिए और उन्हें नीतिगत प्रक्रिया में शामिल करना चाहिए।

परिचर्चा में भाग लेते हुए वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश जोशी ने कहा कि उत्तराखंड में वैज्ञानिकों की राय के खिलाफ जाकर काम हो रहा है, इस कारण आपदा की स्थितियां लगातार बनी रहती हैं। हमें चौड़ी रोड के बजाय टिकाऊ सड़कों पर जोर देना चाहिए। लोग अपने गांवों में सड़क मांग रहे हैं। केदारनाथ आपदा के बाद एसडीआरएफ का गठन एक बड़ी उपलब्धि तो है, लेकिन तटीय इलाकों के वार्निंग सिस्टम के मुकाबले हिमालय में वैसे वार्निंग सिस्टम विकसित नहीं कर पाए हैं। 2021 की रैणी आपदा इसका उदाहरण है। हमारे पास झीलों की निगरानी का तंत्र नहीं है। विकास योजनाओं पर पर्यावरण की चिंताओं को दरकिनार कर दिया जाता है।

संवाद में शामिल एसडीआरएफ के कमांडेंट मणिकांत मिश्रा ने कहा कि यह आपदा सिर्फ केदारनाथ तक सीमित नहीं थी, बल्कि पूरा उत्तराखंड इससे प्रभावित हुआ था। इतनी बड़ी आपदा से कैसे निपटना है, हमें पता नहीं था। उन तजुर्बों के आधार पर एसडीआरएफ का गठन हुआ। आपदा के 10 सालों में शासन-प्रशासन से लेकर जनता के नजरिए में बदलाव आया है कि ऐसी आपदा कभी भी आ सकती है, और हमें इसके लिए तैयार होना पड़ेगा। इसी आधार पर एसडीआरएफ अब हर तरह की आपदा से निपटने के लिए तैयार है। वर्तमान में हमारी पांच कंपनियां हैं जो 42 जगह पर तैनात हैं। जिससे कम से कम समय में दुर्घनास्थल पर पहुंच सकते हैं। अब हमारे पास पूर्वानुमान भी बेहतर हैं। मौसम पूर्वानुमान माइक्रो लेवल तक आ रहे हैं। राज्य में पर्यटकों की बढ़ती संख्या की वजह से भी हादसों से निपटने की चुनौतियां बढ़ी हैं। इसके लिए जवानों को पर्सनल रेस्क्यू और पैरामेडिकल का प्रशिक्षण दिया है। हाई ऑल्टीटयूट रेस्क्यू के लिए भी स्पेशल टीम है। मिश्रा ने उत्तराखंड आने वाले पर्यटकों को वेदर रिपोर्ट को लेकर अलर्ट रहने और कपड़ों आदि के पर्याप्त इंतजाम के बाद ही यात्रा करने की सलाह दी है।

संवाद में उपस्थित लोगों ने उत्तराखंड में अंधाधुंध निर्माण और पर्यटकों की बेतहाशा भीड़ के साथ-साथ नीतिगत मुद्दों पर सवाल उठाए और अपने सुझाव भी दिये। कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ पत्रकार संजीव कंडवाल ने किया जबकि जबकि उद्घाटन सत्र का संचालन प्रेरणा रतूड़ी ने किया। इस अवसर पर अनूप नौटियाल, प्रो. हर्ष डोभाल, डॉ अविनाश जोशी, डॉ नेगी, डॉ. सुशील उपाध्याय, डॉ. मधु थपलियाल, डॉ. एसपी सती, रणबीर चौधरी, प्रदीप मेहता, संजय जोशी, गणेश कंडवाल, प्रदीप कुकरेती सहित कई लोग उपस्थित रहे।

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