गोठ ( पहाड़ की कृषि की जीवंत सांस्कृतिक विरासत)
गोठ ( पहाड़ की कृषि की जीवंत सांस्कृतिक विरासत)
कल शाम को घर में पिताजी को फोन किया तो उन्होंने कहा कि मक्की भूनकर खा रहे हैं, यदि समय है तो तुम भी आ जाओ। मै अक्सर जब भी अपने घर पर फोन करता हॅूं तो घर की पुरानी यादों या यह समझ लीजिए कि पुराने शब्दों को याद में रखने के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले शब्दों को प्रयोग करता हॅू। मैने पिताजी को कहा कि ठीक है, आप एक दो पितली मक्की गोठ के लिए भी रख दो, और मैं अभी गोठ में ही हूॅ, वह हॅसते हॅसते कहने लगे कि वह भी क्या दिन थे जब वास्तव मेंं गोठ में बैठकर मक्की खाया करते थे, आज गोठ शब्द से मेरी सारी यादें ताजा हो गयी।
इसी तरह कई बार बड़े भाई श्री सतेश्वर प्रसाद जोशी जी से जब भी बात होती है तो बात की शुरूवात गोठ, खेत, या पहाड़ के शब्दों से होती है, जो हमारी संस्कृति से जुडे शब्दों से होती है, उसके बाद मुख्य बात पर चर्चा होती है, अक्सर हम लोग गोठ खेत से जुड़े शब्दों इस्तेमाल इसलिए करते हैं, कि यह शब्द चर्चा में रहें, लेकिन आज गोठ प्रथा जो पहाड़ों में प्रायः विलुप्त होने की कगार पर है, आज का लेख उस गोठ संस्कृति या प्रथा को समर्पित है।
गोठ शब्द पहाड़ों की काश्तकारी से जुड़ा शब्द है। पहाड़ों में लोगों के खेत दूर दूराज क्षेत्रों में होते थे, 08 माह के लिए उन खेतों में गोबर एवं खाद के साथ देख रेख के लिए काश्तकार अपनी मवेशियों को लेकर खेतों में रहते थे, जिसे गोठ या एक किस्म से पशुओं का बाड़ा कहा जा सकता है। पहाड़ों में झूम खेती का प्रचलन था, जिसमें काश्तकार खेतों में अलग अलग जगह रहकर निवास करता था। किसान हर जगह गायो के लिये झोपड़ी या छानी नही बना सकता था, इसलिये वह सुविधा के लिए गोठ बनाता था। पहाड़ों में खेतों को उपजाऊ बनाने एवं उनकी देखभाल के लिए मवेशियों को एक बाडे के रूप में रखने को गोठ कहा जाता था। आज के युग की बात करूं तो इसे कैम्पिंग व्यवसाय भी कहा जा सकता है। आज के इस लेख में हम गोठ पर विस्तृत चर्चा करेगे।
गोठ बनाने के लिए आवश्यक सामग्रीः गोठ बनाने के लिए बहुत सामग्रियों की जरूरत काश्तकार को पड़ती थी, गोठ के लिए जितने जरूरी मवेशी या पशु होते हैं, उतने ही जरूरी अन्य सामग्री। गोठ बनाने के लिए पल्ला, टाट टैल आदि सामग्री के बिना गोठ बनाना संभव नहीं है। गोठ बनाने वाली सभी आवश्यक चीजों का वर्णन इस प्रकार है।
1.पल्लाः- पल्ला वह होता है जिसके नीचे काश्तकार और गाय के बछडे, बकरियां रहती थी। यह दो होते है, एक नीचे का एक ऊपर का। ऊपर वाला बड़ा और मजबूत होता था, जबकि नीचे वाला थोड़ा हल्का भी बना लिया जाता था। पल्ला बनाने के लिए बांस की जरूरत पडती है। बॉस की लगभग आघीं इंच की मजबूत तीन डंडे जिन्हें टांड़ी या कहीं कहीं लोटण कहा जाता है। बांस को फाड़कर पतला करके लम्बी लम्ब्बी एक सेमी चौड़ी पतकीले बनाये जाते थे तीनों डंडो के ऊपर का्रस का निशान बनाकर पतकीले रखी जाती थी जिन्हे स्थानीय भाषा में चौकड़ी कहा जाता हैं । इस चौकड़ी के ऊपर चौडाई में आठ से 10 लाठी या चल्ठ कहा जाता था और फिर लम्बाई में पतकीले रखे जाते हैं, उन्हें मालू के स्योल (रस्सी) को पानी में भिगोंकर लंबी रस्सी बनाकर गूंथकर बॉधा जाता है। उसके ऊपर ताछला बिछाया जाता है, फिर मालू के पत्तों से घना करके छाया जाता है। मालू के पत्ते इस कलाकारी से रखने पड़ते हैं कि भारी बरसात का पानी भी अंदर ना घुस सके, उन पत्तों के जोड़ को नीचे की पतकीलों को बतूलों यानी मालू के पत्तो के जोड़ पर रखकर नीचे की पतकीलों से लपेटकर ऊपर की तरफ बॉधने के लिए छोड़ दिया जाता है। पत्तों को छाने के बाद उसके ऊपर ताछला घास को बिछा दिया जाता है और उसके ऊपर फिर वहीं बॉस की पतकीलों को रखा जाता है, और जो नीचे के बतूले होते थे उनसे कसकर बॉधा जाता है। इस तरह से काश्तकार पल्ला बनाते थे, उसके बाद काश्तकारों ने प्लास्टिक का प्रयोग करना शुरू कर दिया है।
2: टाटः- गोठ के चारों ओर बाड़ करने के लिए लगभग 4 फीट उॅचे टाट बनाये जाते हैं यह भी बॉस के पतकीलांं से बनते हैं, यह पल्ले की तरह ही बनता है, बस सिर्फ इसमें लोटण या टांडी नही बनायी जाती है और लाठी की जगह पर पतकीलों को चौड़ाई में रखा जाता है।
गोठ बनाने की विधिः गोठ ऐसी जगह पर बनायी जाती है जहॉ पर खेत सुरक्षित हो। खेत के बाहरी हिस्से जिसे मूंडी कहा जाता है या खेत के दीवार या भीड़ा के ऊपर एक पल्ला खड़ा किया जाता है, जिसको दो तरफ से एक मोटी लाठी को गाढकर उसे बॉध दिया जाता है, उसके ऊपर दूसरा पल्ला रख दिया जाता है, इसे पल्ले को आगे की ओर ढलान दी जाती है ताकि बरसात का पानी सारा बह जाय। इसको रोकने के लिए टंग्वनी जो बांस की बारीख लाठी लेकिन उसके आगे का हिस्सा अग्रेंजी के वी आकार का होता है, उसमें फंसा दिया जाता है, यह नीचे वाले पल्ले के दोनो कोनो और ऊपर वाले पल्ले के जिस आगे की ओर ढलान होती है, उस पर लगाया जाता है, और दोनो तरफ से नीचे जमीन मे कैंची की तरह गॉढ दिया जाता है। जिस जगह पर टंग्वनी से पल्ले को रोका जाता है उसके बाहरी की ओर एक मजबूत टैल या डंडा गाढ दिया जाता है, और उसे रस्सी से बॉध देते हैं। इस रस्सी को स्थानीय भाषा में जुणी कहा जाता है।
ऑधी तूफान से बचाने एवं सुरक्षा के लिए पल्ले की बीच की बॉस की लोटण पर एक मजबूत भीमल के रेसे की रस्सी से नीचे के पल्ले के बीच की लोटण से बॉध दिया जाता है, जिसे धुंडीद कहा जाता है। ऐसा इसलिये किया जाता था कि ऑधी तूफान से पल्ले उड़ ना जाये।
पल्लों के चारों ओर टाट को खड़ा कर बाड़ बना दी जाती है, इन्हें भी मजबूत टैल या टटकील पर जो मजबूत डंडे होते थे उनसे बॉध दिया जाता है। इसको स्थानीय भाषा में खोड़ कहते है। इस तरह से गोट का निर्माण होता है। गोट के अंदर यानी पल्ले में काश्तकार की चारपायी, बिस्तरे, रखे रहते थे। बिस्तर को नीचे वाले पल्ले पर एक लाठियों पर एक रस्सी बॉधकर जिसे जुळा कहा जाता है, उसमें लटका कर रखते है। आग जगाने के लिए लकड़ी के मुच्छयळू यानी मोटी सूखी लकड़ी के बड़े बडे टुकडे आग जगाने के लिए रखे जाते है। जिनकी बकरियां होती थी उनकी दो जोळ की गोठ होती थी, यानी दो अतिरिक्त पल्लों को जोड़ दिया जाता है। बकरियों को बॉधने के लिए तंझला होता है, जिसमें तीन चार बकरियां एक साथ बंधी रहती है।
इसी तरह पल्ले के नीचे बंसलू एक हथियार जिससे कीले जिन्हे खूंटा कह सकते हैं उनको बनाने के लिए रखा जाता है, साथ ही कुल्हाड़ी जिसको टिक्वा कहते हैं वह अवश्य रखना होता है।
टाट के खोड़ यानी बाड़ के एक कोने पर बैल, और दूसरे कोने पर गाय बॅधी रहती है, गाय हमेशा काश्तकार के सिर की तरफ बॅधी रहती हैं। गाय की छोटी बछड़िया काश्तकार के चारपायी के पास बॅधी रहती है। गाय बैलों को बॉधने वाली रस्स्यिं को जूड़ कहा जाता है जो गले में डालकर खूंटे से बॉध दिया जाता है, इसके अतिरिक्त उदण्ड बैल के नाक को छेदकर रस्सी बॉधी जाती है उसे सींत कहा जाता है, और जो गाय किसी को मारने या डराने आती हो उसको बॉधने के लिए नकौला बनाया जाता है। सिंग पर बॉधी जाने वाली रस्सी सिंगवाली और जो गाय दूध देते वक्त लात मारती हो, या उछलती हो उसके लिए खुटसी बनायी जाती है। जो काश्तकार गोठ में रहकर तंबाकू पीते थे वह हुक्का या फिर चीलम साथ में रखते थे, टार्च भी जरूरी रखा जाता है।
काश्तकार गोठ को मौसम और फसल के अनुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाता था। पहले काश्तकार लगभग 08 महीने खेतों में ही गायों के साथ रहता था। गायों के साथ रहने वाले काश्तकारों को हमारी स्थानीय भाषा में गुठळू कहा जाता है। अप्रैल माह में घर के आस पास के खेतों में गायों को बाहर खुले में टाट की खोड़ या बाड़ बनाकर बॉध दिया जाता है। कीलू या खूंटा को गाड़ने के लिये एक मुंगरू होता है, जिससे खूंटे पर चोट मारकर जमीन में गाड़ दिया जाता है।
15 जून यानी आषाड़ के महीने में काश्तकार गायों को लेकर दूर के खेतों में चला जाता है। वहॉ रहकर वह हल लगाता है। सावन के महीने में जिन खेतों में गहथ या उड़द बोयी जाती हैं उनमें गोठ रखी जाती थी, उसके बाद मंडुवे के खेत में काश्तकार मंडुवे को ज्यादा से ज्यादा खाद देने के लिए उसके ऊपर गोठ रख देता था। मंडुवे के ऊपर गोठ रखने के बाद दिन में गाय के गोबर को तसले में पानी के साथ मिलाकर पूरे उस क्षेत्र के मंडुवे पर वह गोबर छिड़क दिया जाता है, जिसे स्थानीय भाषा में क्वादू मळयाण कहते हैं। मंडूवे के खेत से फिर भादांं महीना लगते ही गायों को ऐसे खेतों में ले जाते थे जो खाली हों, वहॉ गोठ एक जगह पर दो से चार दिन रात तक रह सकती है जिसे स्थानीय भाषा में भदवाड़ कहा जाता है। लगभग एक डेढ महीने तक भदवाड़ में गोठ रहती है, उसके बाद आश्विन माह में जब झंगोरा कटने लगता है तब उन खेतों में गोठ को लाया जाता है, जिसे मवासी कहा जाता है। धान कटनें और गेहॅू बोने के लिए खेत में हल लगाने के लिए खेतों में ही गोट रहती है, ताकि काश्तकार को हल लगाने में आसानी हो और खेती की देख रेख हो सके।
कार्तिक माह में लगभग दीवाली के आस पास या दीवाली के दिन में गायों को घर के नजदीक छानियों या सन्नी में लेकर आते हैं। जिस दिन गायों को घर लाते हैं, उस दिन घर में पहले पकौड़ी बनती है, बकायदा पंडित से शुभ दिववार करके गोट को घर लाया जाता है। शाम को गाय बैलों की पूजा होती थी, पहले की बनी चार पकौड़ी बैलों को खिलायी जाती थी। जब गोट बाहर खेतों में जाती थी उस दिन गाय को पकौड़ी खिलायी जाती थी। माना जाता था कि गाय अपने परिवार को लेकर खेतों मे जाती है, और बैल सबकी रक्षा करते हुए अपने गायों के कुनवे को घर वापस लेकर आता है।
गोट में जब रात को बारिश होती थी तो पल्ले के ऊपर पड़ने वाली बूंदे एक सुमधुर संगीत निकलता था काला घना कोहरा, घुप्प अंधेरा, मेढक की टर्र टर्र की आवाज, जैगणगट्टी (जूगनु) की टिमटिमाती रोशनी, गाढ गदेरों की बहते पानी की सुसाहट, कड़कती बिजली जो रूह को कंपा देते थे, तो कभी मीठी गहरी नींद आती थी।
सुबह जब काश्तकार या गुठळू लगभग चार बजे करीब उठकर सबसे पहले आसमान की तरफ देखता था, आसमान साफ होता था तो आसमान मेंं सप्त तारों को देखकर रात का अनुमान लगाते थे, या बादलों से ढकी रात में अंदाजे से समय का अनुमान लगाते थे। सुबह पॉच बजे तक गोठ एक स्थान से दूसरे स्थान पर रख दी जाती थी, गायों को खुले खेतों में बॉध दिया जाता है, जिसे स्थानीय भाषा में बळग्वट देना कहते है। उसके बाद काश्तकार बैलों को लेकर हल लगाने खेतों में चला जाता था।
गुठळू के लिए घर से सुबह केतली या थरमस पर चाय बनकर आती थी, रात की बासी रोटी और सुबह चौलाई या प्याज की सब्जी साथ में एक दो हरी मिर्च लाल या सफेद साफे पर मालू के पत्तों मे लपेटी रोटी और सब्जी जिसे आधे हल लगाकर काश्ताकार खेत के दीवार पर बैठकर मिट्टी से सने हाथो सें ही बड़े स्वाद से खाता था, बच्चे भी घर पर कम और हल या गोठ में इस तरह खाना ज्यादा पंसद करते थे। महिलायें गोठ में रहकर ही घास और खेतें मे निराई गुडाई करती और शाम को गाय का दूध निकालकर जिसे स्थानीय भाषा में ग्वील करना कहा जाता है, झुरमुट झुरमुट अंधेंरे यानी रूमुक के समय घर पहॅचुती थी।
इस तरह से गोठ, काश्तकार, गुठळू, गाय बैल आदि पहाड़ की जींवंत संस्कृति थी। इस बरसात के समय खेतों में गोठ ही गोठ नजर आती थी। अब तो यह मात्र लेखों तक सीमट कर रह गये है। मेरे द्वारा ऊपर जो स्थानीय शब्दों का प्रयोग किया गया है, हो सकता है अन्य क्षेत्रों में इन्हें कुछ और नाम से जाना जाता होगा, लेकिन गोठ सब जगह इसी तरह से होती थी।
©®@ हरीश कण्डवाल मनखी की कलम से।