जीत -हार

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त्रिलोक और रमेश दोनों पड़ौसी है, लेकिन दलगत राजनीति में दोनों की विचारधारा एक नदी के दो तीर है, जब भी चुनावी माहौल होता है तो दोनो पड़ौसी आपस में तर्क वितर्क करते हुए कुतर्क पर पहॅुच जाते हैं। दोनों चुनाव के समय अपने अपने प्रत्याशी के साथ चुनाव प्रचार में लग जाते हैं। नतीजन जब भी उनके समर्थित प्रत्याशी जीतते है तो वह उसे स्वयं की जीत हार समझते हैं। और हर शादी विवाह या अन्य सार्वजनिक कार्यो में दोनों ही एक दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं।

विधानसभा के चुनाव का समय आ गया, अब दोनों गॉव की दुकान में बैठकर केन्द्र से लेकर देश विदेश की राजनीति पर अपना ज्ञान उडलने लगते हैं। दोंनों अपने सोशल मीडिया यूनिविर्सटी के ज्ञान के भण्डार को प्रवक्ता बनकर एक दूसरे पर हावी हो जाते है। त्रिलोक और रमेश की यह राजनीतिक प्रतिद्वद्विता पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध थी। उनको उनके आदर्श नेता के नाम से लोग बुलाते। विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपने क्षेत्र में अपने प्रत्याशी से ज्यादा भीड़ जुटाने के लिए कोशिश स्वंय करते हैं। त्रिलोक तो ऐसे मनोयोग से कार्य कर रहा था जैसे उसकी बेटी की शादी हो रही है। ईधर रमेश छत में बैठकर मजा ले रहा था। त्रिलोक के समर्थित उम्मीदवार ने भाषण में जनता को लुभाया, और त्रिलोक के गले में फूलों की माला डालकर उसके जयकारे लगाये, त्रिलोंक नेता की तरफ कम और रमेश की तरफ ज्यादा कुटिल मुस्कान से देख रहा था।
शाम को आंगन मे त्रिलोक ने जोर जोर से बोलने लगा कि इस बार तो हमारी जीत तय है, ताकि रमेश सुन ले। रमेश उधर अपने प्रत्याशी के लिए उससे दुगनी भीड़ जुटाने के जुगाड़ में लगा हुआ था चाहे अपने जेब से लग जाय लेकिन वह त्रिलोक से ज्यादा भीड़ जुटायेगा। अगले दो दिन बाद गॉव में रमेश के प्रत्याशी की जनसभा रैली तय हो गयी, रमेश ने भी फूक झोपड़ी देख तमाशा वाला काम किया, उसको अपने प्रत्याशी की जीत नहीं बल्कि त्रिलोक को अपनी जान पहचान और अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन करना ज्यादा जरूरी प्रतीत हो रहा था।

चुनाव की तिथि तक दोनों खूब एक दूसरे पर छींटाकशी, व्यंग्य करते, और एक दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करने पर लगे रहते। शाम को त्रिलोक चुनाव प्रचार करके आया और उसकी तबियत कुछ नासाझ सी लगने लगी, उसने अपने विधायक प्रत्याशी को फोन लगाया वह मीटिंग में होने के चलते फोन नहीं उठा पाया, जब तबियत ज्यादा बिगड़ने लगी तो त्रिलोक की पत्नी सुधा रमेश के घर गयी और सारी बात बतायी। रमेश ने कहा कि उसका समर्थित उम्मीदवार आयेगा जिसके लिए वह प्रचार कर रहा है, उसकी जीत ही तो उनसे है। इतना सुनते ही रमेश्ां की पत्नि मीना ने कहा कि तुम इन राजनीति के चक्कर में अपना पडौस धर्म भूल रहे हो, काम हमने एक दूसरे का आना है, चुनाव हो जायेगें जीतने वाले एक दिन क्षेत्र में घूमने आ जायेगे हारने वाले अगले दिन से चार साल तक चेहरा तक नहीं दिखायेगें, लेकिन हमने तो हमेशा साथ ही रहना है। अपनी पत्नी मीना की बात सुनकर रमेश त्रिलोक को देखने चला गया, वहॉ त्रिलोक को माईनर अटैक पड़ा था, रमेश ने उसकी हालात देखी और अपने जानने वाले गाड़ी वाले को फोन किया ।

इतने में त्रिलोक के प्रत्याशी का फोन आया तो उसने हाल चाल जाना लेकिन आने की असमर्थता का बहाना बना दिया। कुछ देर में ही गाड़ी आ गयी और रमेश त्रिलोक के साथ अस्पताल चला गया, वहॉ डॉक्टर ने कहा कि अगर आपने देर कर दी होती तो इनकी जान जा सकती थी। उसके बाद त्रिलोक ने रमेश को धन्यवाद करते हुए कहा कि आज मेरी हार और आपकी जीत हुई है, आज उसको चुनावी रिश्ते और धर्म से ज्यादा बड़ा मानव और पड़ौस धर्म लगा। आज रिश्तों की जीत हुई थी संबंध जीत गये थे और राजनीति हार गयी थी।

हरीश कण्डवाल मनखी की कलम से।

Mankhi Ki Kalam se

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