हिमालय बचाने के लिए हिमालयी गॉवों को सरंक्षण दिया जाना जरूरी

हिमालय बचाने के लिए हिमालयी गॉवों को सरंक्षण दिया जाना जरूरी
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 देहरादून: ( हरीश कण्डवाल “मनखी” ) आज हिमालय दिवस है, हम लोग सब हिमालय के निवासी हैं। उत्तराखंड राज्य का हिमालय से संबंध प्रत्यक्ष तौर पर है। यह भी कह सकते है कि हमारी सभी गतिविधियां हिमालय से जुड़ी हैं। हिमालय से निकलने वाली नदियां ही तो हमारी प्यास को बुझाती है। आज के परिपेक्ष्य में हिमालय जिस खतरे में है वह आने वाले समय के लिये उत्तराखंड या हिमालय से जुडे राज्य को सीधे प्रभावित करेगा। आज मानव जाति जिस विकास के पहिये पर सवार है, वह हिमालय की आत्मा पर प्रत्यक्ष वार कर रहा है।

आज बनने वाले बांध, पहाड़ो पर बड़े बड़े आलीशान होटल, सुरंगे ये सब हिमालय को ध्वस्त करने के लिये आतुर है। वैज्ञानिको का कहना है कि पृथ्वी पर जिस तरह से ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव पड़ रहा है और तापमान बढ़ रहा है वह सीधे तौर पर ग्लेशियरों को प्रभावित करेगा और ग्लेशियर पिघल जायेगे। उत्तराखंड में आज जँहा पर्यटन के नाम से पहाड़ो में लोग आ रहे हैं वह यँहा आर्थिकी कम और कूड़ा का ढेर मुफ्त में देकर जा रहे हैं। कभी हमारे पहाड़ स्वच्छ रहते थे लेकिन आज सब जगह प्लास्टिक की बोतलें, बियर की केन, प्लास्टिक के पत्तल, और पॉलिथीन से पूरी जमीन भरी पड़ी हैं।

ये वही प्लाटिक है जिसे हम आसानी से खरीदकर फेंक देते हैं , और यह जिस जगह पड़ता है, वँहा पर यह स्थायी हो जाता है। उत्तराखंड में हिमालय क्षेत्र में बसे गाँव आज पलायन कर गए हैं जिस कारण वँहा बंजर हो गया है, इसका प्रभाव भी सीधे हिमालयी पर्वत और क्षेत्र पर पड़ा है। क्योंकि जब यँहा मानव निवास करता है तो उसका सीधा संबंध प्रकृति से होता है, अगर वह प्रकृति से लेता है तो वह देता भी है। आज वन कानूनों के कारण और सरकारों की असफल नीतियों की वजह से यँहा से लोग पलायन कर गए हैं, कृषि से जुड़े कार्य पूरी तरह बंद हो गए हैं। जब पहाड़ी कृषक खेती करता था तो उसका सम्बंध सीधे जल जंगल और जमीन से था। खेती के लिये हल लगाता था, अपने लिए लाभकारी पेड़ो को लगाता था। हर तरफ साफ सफाई रखता था। आज यह सब नही हो रहा है। आज असंगठित और अनियोजित विकास की वजह से पहाड़ो के साथ खिलवाड़ हो रहा है। केदारनाथ आपदा इसका उदाहरण है। नदियों के किनारे बने आवास या नदियों का अधिक दोहन भी प्राक्रतिक आपदा को न्योता दे रही हैं। अभी हाल ही का भीषण आपदा का ताजा उदाहरण माल देवता, टिहरी, और पौड़ी के यमकेश्वर को देखने में मिला है। पहाड़ी क्षेत्र में जिस तरह से बादल एक जगह पर फटने की घटनायें हो रही हैं, वह ग्लोबल वार्मिग के बढते कारणों से हो रही हैं। अनुभवी लोगों का मानना है कि पहले भी बारिश बहुत होती थी, किंतु आपदा की ऐसी स्थिति नहीं आती थी। इसके पीछे कारण यह है कि एक तो गॉव से पलायन होना मुख्य कारण है, दूसरा प्रकृति से प्रत्यक्ष जुड़ाव कम हो गया है, पहले हिमालय क्षेत्र से जुड़े गॉवों में खेती होती थी, खेत में हल लगने से पानी खेत में ही रिस जाता था, किंतु अब बंजर पड़े हुए हैं, उनमें दूब व झाडी और घास जमने के कारण पानी सीधे नीचे बहकर आ जाता है, जिस कारण भू कटाव अधिक हो रहा है।

वहीं दूसरी ओर विभागों के द्वारा सड़क बनाने के लिए पहाड़ों को चीरा जा रहा है, उसमें डंपिंग जोन बनाकर सड़क कटान के बाद की मिट्टी को निकालकर नहीं डाला जा रहा है, बल्कि जेसीबी मशीन से सीधे पहाड़ से नीचे धकेल दिया जाता है, साथ ही पहाड़ों में सड़कों के किनारे नालीयॅा नहीं बनी हुई हैं, बरसात का पानी सीधे नीचे आकर भीषण आपदा को न्यौता दे रहा है।

हिमालयी क्षेत्र वैसे भी अति संवेदनशील जोन में आता है, अतः इसकी संवेदनशीलता के साथ खिलवाड़ करना प्राणी मात्र के जीवन को संकट में डालना है। पहाड़ो के लिये यूकेलिप्टस, चीड़ जैसे पेड़ जल दोहन करने में सबसे हानिकारक सिद्ध हुए। हिमालय को बचाने के लिये वँहा के निवासियों को जल जंगल जमीन का जो प्राकृतिक आधिकारिक मिला था वह उनके पास ही रहने दिया जाय। क्योकि जितने भी आदिवासी लोग हैं, उनके यँहा आज भी जंगल सुरक्षित और संरक्षित है। बढ़ती जनसंख्या, बढ़ते वाहन, बढ़ते एयरकंडीशनर, ये सब पृथ्वी को गर्म करके हिमालय की जो हिम शिखर है उन्हें पिघलाने में सहायक सिद्ध होगा। हिमालयी राज्यो में विकास का मॉडल यँहा की यथास्थिति को देखकर बनाया जाना ज्यादा हितकारी साबित होगा। साथ ही हिमालय बचाने के लिए हिमालयी गॉवों को सरंक्षण दिया जाना जरूरी है

Mankhi Ki Kalam se

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